पिछले दस दिन से एक महिला सारे देश के मिडिया का केंद्र बिंदु बनी हुई हैं। समाचार चैनलों, समाचार पत्रों में ये सारी ख़बरें सुनकर और पढ़कर मुझे एक घटना याद आती है। इस घटना ने न सिर्फ एक विद्यार्थी को झकझोर दिया था, बल्कि आने वाले वर्षों में उस विद्यार्थी ने पुरे राष्ट्र के चिंतन को झकझोर दिया।
स्कूल से आते वक़्त रस्ते में भारी बारिश होने लगी, इस बारिश में कहीं स्कूल का बस्ता न भीग जाए यह सोचकर भीम, भागकर एक मकान की ओट में खड़ा हो गया। भरी बारिश में एक बच्चे को भीगता देख अन्दर से किसी ने उस से पूछा बेटा तुम्हारा क्या नाम है। भीम ने डरते-डरते अपना नाम बताया, फिर उसने पूछा बेटा तुम्हारी जाति क्या है, तो जैसे ही भीम ने बताया की वह महार जाति का है, उस बुजर्ग ने जो मकान में था भीम को तुरंत वहां से चले जाने को कहा। बुजर्ग को लगा की अगर वह बच्चा उसके मकान में खड़ा रहेगा तो उसका मकान अ-पवित्र हो जायेगा। उस तेज बारिश में भीम जब घर पहुंचा तो उसका बस्ता पूरी तरह भीग चूका था और साथ ही मन में पड़ा, दलितों पर हो रहे अन्याय और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने का बिज भी अंकुरित हो गया था। आगे चलकर भीम राव आंबेडकर ने दलितों के अधिकारों के लिए जो लडाई लड़ी वह पूरी दुनिया में मानव अधिकारों आंदलनो के लिए एक मिसाल है।
सच मानिये १०० वर्ष पूर्व कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था की 'दलित के घर में जन्मी', 'एक लड़की', एक दिन इस देश के सबसे बड़े राज्य ( लगभग बीस करोड़ की आबादी) का नेत्रत्व करेगी। आज दलितों को जो सम्मान मिला और वह भी समाज और राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हुए इसका श्रेय अवश्य ही भीम राव अम्बेडकर को जाता है। दलितों को आरक्षण मिलने के बाद दलित आन्दोलन कुछ मद्धम पड़ गया और तथाकथित 'उच्च वर्ग' ने सोचा की महज आरक्षण मिलने से दलित सामाजिक और आर्थिक रूप से हमसे आगे नहीं बढ़ सकते। जब देश और समाज इस द्वन्द से गुजर रहा था तब एक राजनैतिक सोच से दलितों को आगे बढ़ने की बात सोची गयी। उस वक़्त कांशी राम ने नारा दिया 'बाबा तेरा मिशन अधुरा, कांशी राम करेगा पूरा'। कुछ हद तक उन्होंने, मिशन को पूर करने का काम भी किया और शायद ये उसी का नतीजा है की आज एक 'दलित' की 'बेटी' हमारे देश के सबसे बड़े राज्य की मुख्य मंत्री हैं।
अब हम यह कह सकते हैं की दलित आन्दोलन तीसरे चरण में पहुँच गया है। हालाँकि कुछ समाज शास्त्री और इतिहासकार हमेशा से यह मानते आयें हैं की, अपने आप को उच्च वर्ग जैसा या उस से भी ऊपर दिखाना हमेशा से ही दलित आन्दोलन से जुडा रहा है। इसका सबसे सटीक उदाहरण समाज शास्त्री, अम्बेडकर की उन मूर्तियों का देते हैं जिनमे वो कोट और टाई में नजर आते हैं। तो अगर मायावती फूलों की jagah नोटों की माला पहन रही हैं तो इसमें कोई हल्ला मचाने की बात नहीं है।
आज भी उत्तर भारत में उच्च वर्ग की शादियों में दुल्हे नोटों की माला पहनते हैं। इस से भी ऊपर कितने सारे राज नेता अपने आप को सोने और चांदी में तुल्वाते हैं। आज तक तो किसी ने भी इतना शोर नहीं मचाया पर येही काम अगर एक दलित करता है तो सारा देश , उसका मीडिया (जिस पर उच्च वर्ग का सर्वाधिकार है) मायावती के पीछे पड़ जाता अ है। आज से पहले तो हमने कभी उस सोने और चांदी की कीमत नहीं पूछी नाही आयकर विभाग ने यह जांच करी की इतना सोना, चांदी कहाँ से आया तो फिर मायावती ही क्यूँ।
मैं कोई समाज शाश्त्री तो हूँ नहीं ना ही कोई इतिहास कार पर मैं यह आसानी देख सकता हूँ की अपने तीसरे चरण में दलित आन्दोलन सबसे कमज़ोर दौर से गुजर रहा है। भले ही दिखावा और अपने आप को ऊँचा दिखने की कोशिश हमेशा से रही हो पर इस हद तक अपन 'राज धरम' भूल कर और सिर्फ दिखावे और दलितों की नुम्यांदिगी का दावा कर कब तक माया वती दलितों का भला कार पाएंगी यह देखने वाली बात है।
बहुत ठीक कहा. मायावती जैसे लोग दलितों के कल्याण के लिए नहीं अपितु निज लाभ तथा स्वार्थ हेतु जुटे हैं.
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